विविध >> विश्व क्रिकेट और भारत विश्व क्रिकेट और भारतसूर्यप्रकाश चतुर्वेदी
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क्रिकेट के इतिहास, उसकी क्रमिक प्रगति व फैलाव तथा भारतीय उपमहाद्वीप का विश्व क्रिकेट को योगदान
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
क्रिकेट अब केवल खेल नहीं रहा, यह जुनून बन चुका है, इसमें अपार यश है, लोकप्रियता है और दौलत है। कभी गोरे अंग्रेजों का खेल कहलाने वाला क्रिकेट आज एशियाई देशों में आम आदमी की आत्मा में बस चुका है। इस खेल में देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप कई बदलाव आते रहे। इस खेल और खिलाड़ियों के साथ विवादों का तो गहरा संबंध रहा है। क्रिकेट की विकास गाथा को अतीत से वर्तमान तक सीमित पृष्ठों में समेटने का दुष्कर कार्य इस
पुस्तक में किया गया हैं। कई दुर्लभ चित्र हैं जोकि पुस्तक पढ़ने का
रोमांच बनाए रखते हैं। इस पुस्तक में क्रिकेट के इतिहास, उसकी क्रमिक
प्रगति व फैलाव तथा भारतीय उपमहाद्वीप का विश्व क्रिकटे को योगदान, विश्व
के प्रमुख मैदानों व रिकार्डों जैसे विषयों को आसान भाषा में प्रस्तुत किया गया है।
पुस्तक के लेखक प्रो. सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी गत तीन दशकों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए क्रिकेट पर लेखन के साथ-साथ आकाशवाणी, दूरदर्शन और यू.जी.सी. के कार्यक्रमों के लिए उद्घोषक काम करते हैं। उनकी अन्य चर्चित पुस्तकें हैं सी.के. नायडू, आजाद भारत में क्रिकेट, हमारे आज के क्रिकेट सितारे।
पुस्तक के लेखक प्रो. सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी गत तीन दशकों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए क्रिकेट पर लेखन के साथ-साथ आकाशवाणी, दूरदर्शन और यू.जी.सी. के कार्यक्रमों के लिए उद्घोषक काम करते हैं। उनकी अन्य चर्चित पुस्तकें हैं सी.के. नायडू, आजाद भारत में क्रिकेट, हमारे आज के क्रिकेट सितारे।
क्रिकेट सिर्फ खेल ही नहीं, एक जीवन शैली है
यह तो एक शाश्वत सत्य है कि क्रिकेट की शुरुआत इंग्लैंड
में हुई। लेकिन यह शुरुआत कब, किसने, कैसे और क्यों की, इन सब प्रश्नों का
उत्तर दे पाना मुश्किल है। दस्तावेज आधार पर आज से करीब चार सौ वर्ष पूर्व
यह खेल शुरू हुआ। किंतु इस शुरुआत के करीब पौने तीन सौ साल बाद टेस्ट
क्रिकेट की शुरुआत हुई। और वह भी इंग्लैंड में नहीं आस्ट्रेलिया में। सन्
1876 में टेस्ट क्रिकेट की शुरुआत के चार साल बाद इंग्लैंड की धरती पर
पहला टेस्ट खेला गया। यह बात सन् 1880 की है। पर आप यह जानकर हैरान होंगे
कि यदि अमेरिका में उत्तरी-दक्षिणी राज्यों के बीच गृहयुद्ध न छिड़ा होता
तो टेस्ट क्रिकेट की शुरुआत इंग्लैंड-आस्ट्रेलिया के बीच ऐशेज श्रृंखला से
न होकर इंग्लैंड-अमेरिका के बीच खेले जाने वाले टेस्ट से होती। जब सभी
तैयारियां हो चुकी थीं तभी अमेरिका में अशांति फैल गई और क्रिकेट खेलने की
योजना धरी रह गई। आप आश्चर्य करेंगे कि भले ही टेस्ट क्रिकेट की शुरुआत
इंग्लैंड-आस्ट्रेलिया के बीच खेले गए टेस्ट से हुई हो, दो देशों के बीच
अंतरर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैट की शुरुआत सन् 1844 में कनाडा और अमेरिका के
बीच के मैच से हुई। यानी टेस्ट क्रिकेट शुरू होने से 32 साल पहले दो देशों
के बीच अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच की शुरुआत हो चुकी थी। लेकिन इंग्लैंड
में इसकी शुरुआत एक देहाती व गांव में खेले जाने वाले खेल के रूप में हुई
थी। एक देहाती व गांव के लोगों द्वारा मौजमस्ती के लिए खेला जाने वाला खेल
एक अंतर्राष्ट्रीय खेल के रूप में फैल जाएगा और इतनी लोकप्रियता प्राप्त
कर लेगा, यह भला किसने सोचा था ? आज जिस तेजी से यह खेल फैला है व
दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होता जा रहा है। तथा इसके प्रति लोगों के बढ़ते
आकर्षण को देख कर लगता है कि निकट भविष्य में दुनिया का शायद ही कोई कोना
बचेगा जहां यह खेल न पहुंच चुका होगा।
ऐसा सोचना गलत है कि यह खेल सिर्फ इंग्लैंड या उसके संपर्क या प्रभाव में रहे देशों में ही खेला जाता है। अमेरिका से लेकर इजराइल, फ्रांस, फिजी व खाड़ी देशों तक में यह फैल चुका है व चाव से खेला जाता है। जो लोग इसे गुलामी का प्रतीक और अंग्रेजों की विरासत मानकर इसका विरोध करते हैं उन्हें इसके इतिहास व आकर्षण का अहसास नहीं है। खेल कभी इस या उस देश का नहीं होता। वह तो उसका होता है जो उसे खेलता है। और जहां तक विदेश से आने का सवाल है, तो क्या फुटबॉल, क्या हॉकी, क्या बैटमिंटन और क्या टेनिस सभी विदेशों से ही आए हैं। कभी भारत की शान मानी जाने वाली कुश्ती पर भी अब विदेशी रंग चढ़ गया है और वह मिट्टी की बजाए गद्दे पर फ्री स्टाइल व ग्रीको रोमन पद्धति से लड़ी जाती है। फैसला चित-पट या अंकों से होता है। अतः किसी भी खेल को केवल किसी देश-विदेश तक सीमित करने की कोशिश करना नादानी है। आप किसी खेल को किसी एक देश की सीमा में बांध कर नहीं रख सकते। सभी खेल देश, जाति, धर्म, नस्ल व संप्रदाय से ऊपर हैं। जिस तेजी से क्रिकेट खेल श्वेत राष्ट्रों की सीमा लांघ कर अश्लेत राष्ट्रों में जा पहुंचा है और जिस उत्सुकता व सहजता से सभी ने इसे अपनाया है उससे इसके प्रति उनके लगाव की पुष्टि होती है। आज यह खेल जितना अंग्रेजों का है उतना ही भारतीयों, पाकिस्तानियों, वेस्टइंडियनों, श्रीलंकाइयों व इजराइलियों का भी है। आज जिस खूबी से वेस्ट इंडीज, भारत, पाकिस्तान व श्रीलंका के खिलाड़ी क्रिकेट खेलते हैं व इंगलैंड के खिलाफ खेलते हुए उनसे बेहतर साबित होते हैं उससे यह प्रतीत होता है कि यह खेल अब अंग्रेजों या श्वेत राष्ट्रों की बपौती नहीं है। आज क्रिकेट हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बन गया है। गावसकर, कपिल देव व तेंदुलकर जैसे खिलाड़ियों की क्रिकेट उपलब्धियों पर गर्व किया जा सकता है। जरा सोचिए तो कि भारत में मुश्ताक अली व अजहरुद्दीन जिस खूबी से गेंद फ्लिक करते थे, विश्वनाथ बेहतरीन हाफ-ड्राइव लगाते थे, सुनील गावसकर जिस निर्दोष तकनीक से विश्व के तीव्रतम गति के गेंदबाजों को सामना करते थे, गुप्ते जादुई लेग स्पिन गुगली व प्रसन्ना ऑफ स्पिन करते थे, तेंदुलकर छोटे कद हो होने के बावजूद जिस विस्फोटक शैली से बल्लेबाजी करते हैं, श्रीलंका में मुरलीधरण जिस कौशल से ऑफ स्पिन करते हैं, इमरान जिस चालाकी से इन डिपर गेंदें डालते थे, वसीम अकरम जो बेहतरीन रिवर्स स्विंग व गेंद को अंदर बाहर करते थे, जहीर अब्बास व मियांदाद जैसी बल्लेबाजी करते थे, वेस्ट इंडीज के महान वॉरेल व सोबर्स के खेल में जो आकर्षण था तथा वेस हॉल, ऐंडी रॉबर्ट्स, गार्नर, मार्शल, होल्डिंग व एम्ब्रोज जो तूफानी गति की गेंदों से कहर बरपाते थे, वैसा इंग्लैंड के व आस्ट्रेलिया के कितने खिलाड़ी कर पाते थे। न तो कला किसी की बपौती है और नहीं खेल। किसी खेल पर किसी देश विशेष का एकाधिकार न होता है और न ही कभी रह सकता है। आज भी श्रीलंका के युवा बल्लेबाज जयवर्धने के खेल में जैस गजब का आकर्षण है वैसा उनकी उम्र के विश्व के किसी भी देश के खिलाड़ी में नहीं है।
आज 10 टेस्ट देश ही नहीं डेनमार्क, चिली, ब्राजील, कनाडा, अमेरिका, बेल्जियम, तस्मानिया, इजराइल, अर्जेंटीना, बरमुडा, फिजी, घाना, केन्या व हालैंड में भी क्रिकेट खेला जा रहा है। खाड़ी के देश भी इसे तेजी से अपना रहे हैं। इनमें से कुछ देशों का क्रिकेट स्तर तो काफी अच्छा है। फिर क्यों ऊलजलूल आरोप लगाने की राजनीति की जाए ? जिन्हें पसंद न हो वे न खेलें। पर जिन्हें यह खेल पसंद है वे इससे मुक्ति नहीं पा सकते। उसको छुट्टी न मिली, जिसको सबक याद हुआ, जैसा आलम है।
और अब यह खेल न ही रईसों का है। दुनिया के सभी देशों के ज्यादातर महान खिलाड़ियों की पैदाइश गरीब घरों की है। भारत भी इस सत्य से अछूता नहीं है। पुराने जमाने में नायडू, मुश्ताक, अमरनाथ व हजारे, फिर सलीम दुर्रानी, सोलकर, करसन घावरी, सुनील गावसकर, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर से लेकर राहुल द्रविड़ व श्रीनाथ तक सभी मध्यम अथवा निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों में पैदा हुआ। तंगी, परेशानी व कठिनाइयों के बीच रहकर खेले व तरक्की की ओर आज-जरूर पैसे वाले हैं।
रईस व्यक्ति न तो इतनी मशक्कत कर सकता है और न ही इतनी उच्च स्तरीय शारीरिक फिटनेस प्राप्त कर सकता है कि वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत आगे जा सके। अतः यह राग अलापना भी कतई गलत है कि क्रिकेट रईसों का खेल है। वास्तव में यह गरीबों और मध्यम वर्गीय परिवारों के लोगों का खेल है। यह सच है कि खेल उपकरण बहुत महंगे हैं, पर यह भी उतना ही सच है कि बोर्ड, राज्यों की क्रिकेट इकाइयों एवं विभिन्न संस्थाओं व क्लबों में सहयोग से बड़ी संख्या में युवक क्रिकेट की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इस तरह सुविधाएं भी बढ़ी हैं। पुराना रोना रोने की बजाए आगे की ओर देखना व उपलब्ध सुविधाओं व संसाधनों का पूरा उपयोग करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बंगलूर सहित पांच केंद्रों पर राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी की शाखाएं खुल जाने से युवाओं के लिए अवसरों में और वृद्धि हुई है। दो या तीन वर्षों में नक्शा बदलेगा। शर्त यही है कि इन साधनों का सही उपयोग हो और राजनीति हावी न हो।
क्रिकेट की मार्केटिंग की शुरुआत तो कैरी पैकर ने 1976 से शुरु कर दी थी जब उन्होंने अपने टेलीविजन के चैनल नं. 9 के एकाधिकार की खातिर विश्व भर के विख्यात खिलाड़ियों को अनुबंधित कर लिया था। जैसे ही समझौता हुआ, समूचा क्रिकेट जगत हिल गया था। इसके बाद खिलाड़ियों को अपनी ताकत व कीमत का अहसास हुआ।
यह सन् 1932 की बॉडी लाइन श्रृंखला के बाद का क्रिकेट पर छाया दूसरा संकट था। पर जैसे क्रिकेट ने उस संकट को पार कर लिया, कैरी पैकर का संकट भी टल गया। फिर विश्व कप 99 के बाद क्रिकेट पर तीसरा पड़ा संकट आया जब दिल्ली पुलिस के ईश्वर सिंह ने दक्षिण अफ्रीकी कप्तान हंसी क्रोनिए व सटोरियों के बीच हुए वार्तालाप को संयोगवश पकड़ लिया। मैच फिक्सिंग का शोर चारों ओर से सुनाई देना लगा। भारत, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड, पाकिस्तान, श्रीलंका व वेस्ट इंडीज के खिलाड़ियों और खाड़ी के देशों में रह रहे भारतीय व पाकिस्तानी मूल के निवासियों के नामों की चर्चा रही। ऐसा माहौल हो गया कि हर नजदीकी फैसले वाला मैच शक की निगाह से देखा जाने लगा। यदि कोई कैच छोड़ता या जल्दी आउट हो जाता तो लोगों को उसमें सट्टेबाजी का हाथ नजर आने लगता। पहले यह सब खेल का हिस्सा माना जाता था। अब ऐसी मान्यता हो गई कि लोग जान-बूझकर खराब खेल रहे हैं व हार रहे हैं क्योंकि खराब खेलने पर स्वाभाविक खेल खेलने से अधिक पैसा मिलता है। यह भी अनुचित था कि सभी खिलाड़ियों व सभी मैचों को सट्टेबाजी या फिक्सिंग से जोड़ा जाए। क्रिकेट की विश्वसनीयता खतरे में पड़ गई। लेकिन समय के साथ व गंदी मछलियों को क्रिकेट के तालाब से बाहर कर दिए जाने के बाद सब कुछ सामान्य हो गया। इस तरह क्रिकेट ने तीसरे संकट को भी पार कर लिया। लोगों को डर था कि विश्वसनीयता के संकट की वजह से कहीं क्रिकेट की लोकप्रियता पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। लेकिन यह शंका निर्मूल साबित हुई। सभी जगह सारे मैचों में स्टेडियम भरे दिखे चाहे लार्ड्स हो या फिर ईडन गार्डन अथवा मेलबोर्न।
आप देखेंगे कि प्रतिभावान होना और अपनी प्रतिभा को सहेजना कितना मुश्किल है। करीब 224 वर्ष के क्रिकेट इतिहास में अनेक प्रतिभावान खिलाड़ी हुई। उनमें से कुछ ने अपनी प्रतिभा को संवारा, इसे नियंत्रित एवं अनुशासित किया। उसे सहेजा व उसका उचित उपयोग किया। कुछ ऐसे भी थे जो प्रतिभावान तो थे किंतु वे अपनी प्रतिभा को संभाव नहीं पाए। जिन लोगों ने अपनी प्रतिभा को संभाला व सहेजा वे आगे बढ़ गए और जो अपनी प्रतिभा का सही उपयोग नहीं कर पाए और जिन्होंने उसे व्यर्थ गंवाया वे पीछे रह गए। ईश्वर जब किसी व्यक्ति को प्रतिभा देता है तो उसे संभालने की काबलियत व क्षमता भी देता है। जो उसे संभाल पाते हैं वे ही शिखर पर पहुंचते हैं। और इसके साथ ही ईश्वर व्यक्ति को प्रतिभा की अवहेलना करने, उसका दुरुपयोग करने तथा उसके प्रति लापरवाह बने रहने के लिए अन्य आकर्षणों की ओर दौड़ने का अवसर भी देता है। प्रतिभावान और समर्पित व्यक्ति तो तरक्की कर जाता है, किंतु प्रतिभावान होते हुए भी इधर-उधर भटक जाने वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विनाश कर डालता है।
प्रतिभावान सफल व्यक्तियों की सूची में विलियम लैंबर्ट, डबल्यू जी ग्रेस, अर्थर, शुजबरी, अमेरिका के फिलाडेल्फिया के किंग, जैक हॉब्स, सटक्लिफ, हेमंड, लेन हटन, डॉन ब्रेडमैन, लिंडवाल, पोंसपोर्ड, वुडफुल, नील हार्वे, डेनिस लिली, एलन बॉर्डर, वॉ बंधु, सी.के. नायडू, विजय हजारे, विजय मर्चेंट, सुनील गावसकर, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर, गैरी सोबर्स, क्लाइव लायड, विलियम रिचर्ड्स, होल्डिंग, मार्शल, वाल्श, इमरान, जहीर अब्बास, रिचर्ड हेडली आदि प्रमुख हैं। और जो प्रतिभावान होने के बावजूद अपनी प्रतिभा का ठीक से उपयोग नहीं कर सके व उसे संभाल नहीं सके उनमें कीथ मिलर, विक्टर ट्रंपर, सिसिल पेपर, टेड डेक्सटर, इयान बोथम, सलीम दुर्रानी, विनोद कांबली प्रमुख थे। यदि ये व इन जैसे दूसरे खिलाड़ी स्वयं को व्यवस्थित रखते और अपनी प्रतिभा को संभालते तो बहुत आगे जा सकते थे। किंतु नाम, पैसा व प्रचार अक्सर लोगों को गलत रास्तों पर पहुंचा देता है। ये भी भटक गए और उन लतों के शिकार हो गए जो प्रगति के मार्ग में बाधक हैं। ये जहां प्रतिभा के साथ व्यवस्था व अनुशासन है वहां तरक्की है, यश है और कीर्तिमान है। और जहां प्रतिभा तो है पर उसकी देखभाल नहीं है और आत्मानुशासन नहीं है, वहां विनाश है। सवा दो सालों के क्रिकेट इतिहास का अध्ययन करते समय मैंने पाया कि ये खिलाड़ी स्वभाव, शैली एवं व्यक्तित्व के लिहाज से एक दूसरे से कितने भिन्न हैं। कुछ हंसमुख हैं तो कुछ विनोदप्रिय, विनम्र व सरल सहज स्वभाव के हैं तो कुछ तुनुक मिजाज अकड़ व झगड़ालू। कुछ नियमों के पालन के प्रति बेहद संजीद तो कुछ उनका फायदा फठाने को आतुर। ऐसा लगा कि क्रिकेट इतिहास एक गुलदान है जिसमें तरह-तरह के फूल सजे हुए हैं।
ऐसा सोचना गलत है कि यह खेल सिर्फ इंग्लैंड या उसके संपर्क या प्रभाव में रहे देशों में ही खेला जाता है। अमेरिका से लेकर इजराइल, फ्रांस, फिजी व खाड़ी देशों तक में यह फैल चुका है व चाव से खेला जाता है। जो लोग इसे गुलामी का प्रतीक और अंग्रेजों की विरासत मानकर इसका विरोध करते हैं उन्हें इसके इतिहास व आकर्षण का अहसास नहीं है। खेल कभी इस या उस देश का नहीं होता। वह तो उसका होता है जो उसे खेलता है। और जहां तक विदेश से आने का सवाल है, तो क्या फुटबॉल, क्या हॉकी, क्या बैटमिंटन और क्या टेनिस सभी विदेशों से ही आए हैं। कभी भारत की शान मानी जाने वाली कुश्ती पर भी अब विदेशी रंग चढ़ गया है और वह मिट्टी की बजाए गद्दे पर फ्री स्टाइल व ग्रीको रोमन पद्धति से लड़ी जाती है। फैसला चित-पट या अंकों से होता है। अतः किसी भी खेल को केवल किसी देश-विदेश तक सीमित करने की कोशिश करना नादानी है। आप किसी खेल को किसी एक देश की सीमा में बांध कर नहीं रख सकते। सभी खेल देश, जाति, धर्म, नस्ल व संप्रदाय से ऊपर हैं। जिस तेजी से क्रिकेट खेल श्वेत राष्ट्रों की सीमा लांघ कर अश्लेत राष्ट्रों में जा पहुंचा है और जिस उत्सुकता व सहजता से सभी ने इसे अपनाया है उससे इसके प्रति उनके लगाव की पुष्टि होती है। आज यह खेल जितना अंग्रेजों का है उतना ही भारतीयों, पाकिस्तानियों, वेस्टइंडियनों, श्रीलंकाइयों व इजराइलियों का भी है। आज जिस खूबी से वेस्ट इंडीज, भारत, पाकिस्तान व श्रीलंका के खिलाड़ी क्रिकेट खेलते हैं व इंगलैंड के खिलाफ खेलते हुए उनसे बेहतर साबित होते हैं उससे यह प्रतीत होता है कि यह खेल अब अंग्रेजों या श्वेत राष्ट्रों की बपौती नहीं है। आज क्रिकेट हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बन गया है। गावसकर, कपिल देव व तेंदुलकर जैसे खिलाड़ियों की क्रिकेट उपलब्धियों पर गर्व किया जा सकता है। जरा सोचिए तो कि भारत में मुश्ताक अली व अजहरुद्दीन जिस खूबी से गेंद फ्लिक करते थे, विश्वनाथ बेहतरीन हाफ-ड्राइव लगाते थे, सुनील गावसकर जिस निर्दोष तकनीक से विश्व के तीव्रतम गति के गेंदबाजों को सामना करते थे, गुप्ते जादुई लेग स्पिन गुगली व प्रसन्ना ऑफ स्पिन करते थे, तेंदुलकर छोटे कद हो होने के बावजूद जिस विस्फोटक शैली से बल्लेबाजी करते हैं, श्रीलंका में मुरलीधरण जिस कौशल से ऑफ स्पिन करते हैं, इमरान जिस चालाकी से इन डिपर गेंदें डालते थे, वसीम अकरम जो बेहतरीन रिवर्स स्विंग व गेंद को अंदर बाहर करते थे, जहीर अब्बास व मियांदाद जैसी बल्लेबाजी करते थे, वेस्ट इंडीज के महान वॉरेल व सोबर्स के खेल में जो आकर्षण था तथा वेस हॉल, ऐंडी रॉबर्ट्स, गार्नर, मार्शल, होल्डिंग व एम्ब्रोज जो तूफानी गति की गेंदों से कहर बरपाते थे, वैसा इंग्लैंड के व आस्ट्रेलिया के कितने खिलाड़ी कर पाते थे। न तो कला किसी की बपौती है और नहीं खेल। किसी खेल पर किसी देश विशेष का एकाधिकार न होता है और न ही कभी रह सकता है। आज भी श्रीलंका के युवा बल्लेबाज जयवर्धने के खेल में जैस गजब का आकर्षण है वैसा उनकी उम्र के विश्व के किसी भी देश के खिलाड़ी में नहीं है।
आज 10 टेस्ट देश ही नहीं डेनमार्क, चिली, ब्राजील, कनाडा, अमेरिका, बेल्जियम, तस्मानिया, इजराइल, अर्जेंटीना, बरमुडा, फिजी, घाना, केन्या व हालैंड में भी क्रिकेट खेला जा रहा है। खाड़ी के देश भी इसे तेजी से अपना रहे हैं। इनमें से कुछ देशों का क्रिकेट स्तर तो काफी अच्छा है। फिर क्यों ऊलजलूल आरोप लगाने की राजनीति की जाए ? जिन्हें पसंद न हो वे न खेलें। पर जिन्हें यह खेल पसंद है वे इससे मुक्ति नहीं पा सकते। उसको छुट्टी न मिली, जिसको सबक याद हुआ, जैसा आलम है।
और अब यह खेल न ही रईसों का है। दुनिया के सभी देशों के ज्यादातर महान खिलाड़ियों की पैदाइश गरीब घरों की है। भारत भी इस सत्य से अछूता नहीं है। पुराने जमाने में नायडू, मुश्ताक, अमरनाथ व हजारे, फिर सलीम दुर्रानी, सोलकर, करसन घावरी, सुनील गावसकर, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर से लेकर राहुल द्रविड़ व श्रीनाथ तक सभी मध्यम अथवा निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों में पैदा हुआ। तंगी, परेशानी व कठिनाइयों के बीच रहकर खेले व तरक्की की ओर आज-जरूर पैसे वाले हैं।
रईस व्यक्ति न तो इतनी मशक्कत कर सकता है और न ही इतनी उच्च स्तरीय शारीरिक फिटनेस प्राप्त कर सकता है कि वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत आगे जा सके। अतः यह राग अलापना भी कतई गलत है कि क्रिकेट रईसों का खेल है। वास्तव में यह गरीबों और मध्यम वर्गीय परिवारों के लोगों का खेल है। यह सच है कि खेल उपकरण बहुत महंगे हैं, पर यह भी उतना ही सच है कि बोर्ड, राज्यों की क्रिकेट इकाइयों एवं विभिन्न संस्थाओं व क्लबों में सहयोग से बड़ी संख्या में युवक क्रिकेट की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इस तरह सुविधाएं भी बढ़ी हैं। पुराना रोना रोने की बजाए आगे की ओर देखना व उपलब्ध सुविधाओं व संसाधनों का पूरा उपयोग करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बंगलूर सहित पांच केंद्रों पर राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी की शाखाएं खुल जाने से युवाओं के लिए अवसरों में और वृद्धि हुई है। दो या तीन वर्षों में नक्शा बदलेगा। शर्त यही है कि इन साधनों का सही उपयोग हो और राजनीति हावी न हो।
क्रिकेट की मार्केटिंग की शुरुआत तो कैरी पैकर ने 1976 से शुरु कर दी थी जब उन्होंने अपने टेलीविजन के चैनल नं. 9 के एकाधिकार की खातिर विश्व भर के विख्यात खिलाड़ियों को अनुबंधित कर लिया था। जैसे ही समझौता हुआ, समूचा क्रिकेट जगत हिल गया था। इसके बाद खिलाड़ियों को अपनी ताकत व कीमत का अहसास हुआ।
यह सन् 1932 की बॉडी लाइन श्रृंखला के बाद का क्रिकेट पर छाया दूसरा संकट था। पर जैसे क्रिकेट ने उस संकट को पार कर लिया, कैरी पैकर का संकट भी टल गया। फिर विश्व कप 99 के बाद क्रिकेट पर तीसरा पड़ा संकट आया जब दिल्ली पुलिस के ईश्वर सिंह ने दक्षिण अफ्रीकी कप्तान हंसी क्रोनिए व सटोरियों के बीच हुए वार्तालाप को संयोगवश पकड़ लिया। मैच फिक्सिंग का शोर चारों ओर से सुनाई देना लगा। भारत, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड, पाकिस्तान, श्रीलंका व वेस्ट इंडीज के खिलाड़ियों और खाड़ी के देशों में रह रहे भारतीय व पाकिस्तानी मूल के निवासियों के नामों की चर्चा रही। ऐसा माहौल हो गया कि हर नजदीकी फैसले वाला मैच शक की निगाह से देखा जाने लगा। यदि कोई कैच छोड़ता या जल्दी आउट हो जाता तो लोगों को उसमें सट्टेबाजी का हाथ नजर आने लगता। पहले यह सब खेल का हिस्सा माना जाता था। अब ऐसी मान्यता हो गई कि लोग जान-बूझकर खराब खेल रहे हैं व हार रहे हैं क्योंकि खराब खेलने पर स्वाभाविक खेल खेलने से अधिक पैसा मिलता है। यह भी अनुचित था कि सभी खिलाड़ियों व सभी मैचों को सट्टेबाजी या फिक्सिंग से जोड़ा जाए। क्रिकेट की विश्वसनीयता खतरे में पड़ गई। लेकिन समय के साथ व गंदी मछलियों को क्रिकेट के तालाब से बाहर कर दिए जाने के बाद सब कुछ सामान्य हो गया। इस तरह क्रिकेट ने तीसरे संकट को भी पार कर लिया। लोगों को डर था कि विश्वसनीयता के संकट की वजह से कहीं क्रिकेट की लोकप्रियता पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। लेकिन यह शंका निर्मूल साबित हुई। सभी जगह सारे मैचों में स्टेडियम भरे दिखे चाहे लार्ड्स हो या फिर ईडन गार्डन अथवा मेलबोर्न।
आप देखेंगे कि प्रतिभावान होना और अपनी प्रतिभा को सहेजना कितना मुश्किल है। करीब 224 वर्ष के क्रिकेट इतिहास में अनेक प्रतिभावान खिलाड़ी हुई। उनमें से कुछ ने अपनी प्रतिभा को संवारा, इसे नियंत्रित एवं अनुशासित किया। उसे सहेजा व उसका उचित उपयोग किया। कुछ ऐसे भी थे जो प्रतिभावान तो थे किंतु वे अपनी प्रतिभा को संभाव नहीं पाए। जिन लोगों ने अपनी प्रतिभा को संभाला व सहेजा वे आगे बढ़ गए और जो अपनी प्रतिभा का सही उपयोग नहीं कर पाए और जिन्होंने उसे व्यर्थ गंवाया वे पीछे रह गए। ईश्वर जब किसी व्यक्ति को प्रतिभा देता है तो उसे संभालने की काबलियत व क्षमता भी देता है। जो उसे संभाल पाते हैं वे ही शिखर पर पहुंचते हैं। और इसके साथ ही ईश्वर व्यक्ति को प्रतिभा की अवहेलना करने, उसका दुरुपयोग करने तथा उसके प्रति लापरवाह बने रहने के लिए अन्य आकर्षणों की ओर दौड़ने का अवसर भी देता है। प्रतिभावान और समर्पित व्यक्ति तो तरक्की कर जाता है, किंतु प्रतिभावान होते हुए भी इधर-उधर भटक जाने वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विनाश कर डालता है।
प्रतिभावान सफल व्यक्तियों की सूची में विलियम लैंबर्ट, डबल्यू जी ग्रेस, अर्थर, शुजबरी, अमेरिका के फिलाडेल्फिया के किंग, जैक हॉब्स, सटक्लिफ, हेमंड, लेन हटन, डॉन ब्रेडमैन, लिंडवाल, पोंसपोर्ड, वुडफुल, नील हार्वे, डेनिस लिली, एलन बॉर्डर, वॉ बंधु, सी.के. नायडू, विजय हजारे, विजय मर्चेंट, सुनील गावसकर, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर, गैरी सोबर्स, क्लाइव लायड, विलियम रिचर्ड्स, होल्डिंग, मार्शल, वाल्श, इमरान, जहीर अब्बास, रिचर्ड हेडली आदि प्रमुख हैं। और जो प्रतिभावान होने के बावजूद अपनी प्रतिभा का ठीक से उपयोग नहीं कर सके व उसे संभाल नहीं सके उनमें कीथ मिलर, विक्टर ट्रंपर, सिसिल पेपर, टेड डेक्सटर, इयान बोथम, सलीम दुर्रानी, विनोद कांबली प्रमुख थे। यदि ये व इन जैसे दूसरे खिलाड़ी स्वयं को व्यवस्थित रखते और अपनी प्रतिभा को संभालते तो बहुत आगे जा सकते थे। किंतु नाम, पैसा व प्रचार अक्सर लोगों को गलत रास्तों पर पहुंचा देता है। ये भी भटक गए और उन लतों के शिकार हो गए जो प्रगति के मार्ग में बाधक हैं। ये जहां प्रतिभा के साथ व्यवस्था व अनुशासन है वहां तरक्की है, यश है और कीर्तिमान है। और जहां प्रतिभा तो है पर उसकी देखभाल नहीं है और आत्मानुशासन नहीं है, वहां विनाश है। सवा दो सालों के क्रिकेट इतिहास का अध्ययन करते समय मैंने पाया कि ये खिलाड़ी स्वभाव, शैली एवं व्यक्तित्व के लिहाज से एक दूसरे से कितने भिन्न हैं। कुछ हंसमुख हैं तो कुछ विनोदप्रिय, विनम्र व सरल सहज स्वभाव के हैं तो कुछ तुनुक मिजाज अकड़ व झगड़ालू। कुछ नियमों के पालन के प्रति बेहद संजीद तो कुछ उनका फायदा फठाने को आतुर। ऐसा लगा कि क्रिकेट इतिहास एक गुलदान है जिसमें तरह-तरह के फूल सजे हुए हैं।
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